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Saturday, 10 August 2024

Selling medicines online is not permitted as per the Act

Access to Pharmacist is Access to Health

pharmaceutical coding is different from medical coding

Pharmaceutical codes are used in medical classification to uniquely identify medication. They may uniquely identify an active ingredient, drug system (including inactive ingredients and time-release agents) in general, or a specific pharmaceutical product from a specific manufacturer.

Examples

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Drug system identifiers (manufacturer-specific including inactive ingredients):

Hierarchical systems:

Ingredients:

Proprietary database identifiers include those assigned by First DatabankMicromedexMediSpan, Gold Standard Drug Database (published by Elsevier), and Cerner Multum MediSource Lexicon; these are cross-indexed by RxNorm, which also assigns a unique identifier (RxCUI) to every combination of active ingredient and dose level.


Medical coding is the transformation of healthcare diagnosis, procedures, medical services, and equipment into universal medical alphanumeric codes. The diagnoses and procedure codes are taken from medical record documentation, such as transcription of physician's notes, laboratory and radiologic results, etc.

Medical coding professionals help ensure the codes are applied correctly during the medical billing process, which includes abstracting the information from documentation, assigning the appropriate codes, and creating a claim to be paid by insurance carriers.

Medical coding happens every time you see a healthcare provider. The healthcare provider reviews your complaint and medical history, makes an expert assessment of what’s wrong and how to treat you, and documents your visit. That documentation is not only the patient’s ongoing record, it’s how the healthcare provider gets paid.

Medical coders translate documentation into standardized codes that tell payers the following:

  • Patient's diagnosis

  • Medical necessity for treatments, services, or supplies the patient received

  • Treatments, services, and supplies provided to the patient

  • Any unusual circumstances or medical condition that affected those treatments and services


How can we determine quality of medicine in the ocean of generic medicines?

How can we determine quality of medicine in the ocean of generic medicines?

Check-List for Quality of Medicine

1 Look for the make and check their website.
A. Look for the Co. Profile.
B. Look for the Co. License.
C. Look for the approved products.

2. Look for the Standards like IP mentioned, Batch No and Exp date.

3. Never forget to collect Official Cash bill.

I think thats enough at consumer level

POV : Bhagwan PS

Tuesday, 6 August 2024

Schedule K ammendment

Happy Pharmacists Day (?)😄
25th Sep.

What a Cruel joke on Pharmacists?

How can the Pharmacist be happy as PCI & IPA have made his job anybody's job by endorsing Sch K amendment @DTAB meeting?

All Pharma Authorities and Pharmacists should observe 'wake up Day' to address service Issues.

Service issue is not just salary and designation.

It is empowerment and authority pharmacists deserves to serve with professional judgement.

This cannot happen without B Pharms and Pharm Ds.

https://1drv.ms/b/c/161242c622ef14b2/ERhJE2syU6xMuAm2GJEtv7EBFm3COTermkoI1zk0Iczz2w

Schedule K describe the exempted drugs, conditions and extent of exemption from all the provisions of Chapter IV of the Act and the Rules there under subject to the conditions.   The drugs specified in Schedule K shall be exempted from the provisions of Chapter IV of the Act and the Rules made thereunder to the extent and subject to the conditions specified in that Schedule.
https://chat.whatsapp.com/Iili8jkCHeYJYi3x89OPuF
Exemption is provided only against fulfillment of conditions specified in Schedule.

Monday, 5 August 2024

Brand force

Brand force..

Majority of Indian Doctors do not like patients buying Generics.

Government should impose a Rule that all prescriptions should carry statutory statement:

"Patients are free to Buy and Use equivalent 'Generic' drugs"

POV : Bhagwan PS

Saturday, 3 August 2024

Indian Medical and Pharmaceutical Scenarios which patients have to face

- 5 रुपये की दवा 50 रुपयों में खरीदवाते हैं डॉक्टर

- लाइफ सेविंग ड्रग्स के नाम पर भी भरते हैं अपनी जेब

- सस्ती होने के बावजूद जेनेरिक दवाओं को नहीं देते बढ़ावा

डॉक्टर यानी धरती का भगवान। मगर कुछ लालची डॉक्टर फार्मा कंपनियों के साथ मिलकर पेशेंट्स की जेब पर डाका डालने में जुटे रहते हैं। इस धंधे में सरकारी और प्राइवेट दोनों ही डॉक्टर्स शामिल हैं। ईमानदारी से मिलने वाली प्रैक्टिस की फीस या सरकार से मिलने वाली तनख्वाह उन्हें हमेशा कम लगती है। इसीलिये वे मार्केट में सस्ती दवाओं की अवेलेबिलिटी के बावजूद महंगी दवाएं ही प्रीस्क्राइब करते हैं। और जेनेरिक दवाओं को कभी बढ़ावा नहीं देते।

50 परसेंट तक कमीशन

सरकारी अस्पताल के इन भगवानों का यह हाल है कि कुछ गिनी-चुनी कंपनियों की ही दवाएं लिखने के लिए वे मोटा कमीशन वसूलते हैं। एक कंपनी के एमआर ने बताया कि वह पहले एक नई लोकल कंपनी में कार्यरत थे तो दवाएं बेचने का टारगेट मिलता था। वह सरकारी और प्राइवेट दोनों ही डॉक्टर्स के पास जाते थे। दवा उतनी इफेक्टिव नहीं थी और नाम भी नया था, इसलिए 90 परसेंट डॉक्टर तुरंत अपने मुनाफे की बात करते थे। इसके लिए उन्हें 10 से लेकर 50 परसेंट तक कमीशन देना होता है। बिना कमीशन नई कंपनी मार्केट में ठहर नहीं सकती।

महंगी गाडि़यों तक की डिमांड

एक मल्टीनेशनल फार्मा कंपनी के यूपी हेड के अनुसार बड़ी कंपनियों को अपने प्रोडक्ट को मार्केट में बेचने के लिए दवा की कीमत का बड़ा हिस्सा डॉक्टर्स को देना पड़ता है। बड़ी कंपनियां मोटा मुनाफा कमाती हैं तो इसके लिए वे डॉक्टर्स को भी बड़ा हिस्सा देने को तैयार रहती हैं। इसमें कंपनियां डॉक्टर्स को महंगे गिफ्ट से लेकर कैश तक देती हैं। डॉक्टर्स को बड़ी लग्जरी गाडि़यां, विदेशों की सैर, घर के लिए महंगे गिफ्ट्स और उनके घर पर होने वाली किसी भी पार्टी का सारा खर्च ये कंपनियां उठाने को तैयार रहती हैं। डॉक्टर का जितना बड़ा नाम होगा, उसको फार्मा कंपनियों से मिलने वाली सुविधाएं भी उतनी ही अधिक होंगी।

कंपनियों को करोड़ों का मुनाफा

एक बड़ी कंपनी के अधिकारी के अनुसार अगर डॉक्टर को कमीशन व अन्य सुविधाएं नहीं देंगे तो दवा बेचना मुश्किल हो जाता है। मार्केट में एक ही दवा 5 रुपए से लेकर 50 रुपए तक में उपलब्ध होती है। अलग-अलग कंपनियों की दवाओं के रेट्स अलग होते हैं। डॉक्टर के रेट के कमीशन के हिसाब से कंपनियां अपनी दवाएं बेच लेती हैं। कई डॉक्टर ऐसे हैं, जिनका सीधे बड़ी कंपनियों से टाइअप होता है। दवाओं के लिहाज से डॉक्टरों का हर एक प्रिस्क्रिप्शन बिका होता है। एक ऊंची बोली लगती है दवाईयों के पर्चे में दर्ज होने वाली दवाओं की फेहरिस्त की। केजीएमयू के एक पूर्व डॉक्टर ऐसे ही हैं। वे एमआर या लोकल मैनेजर से बात भी नहीं कर सकते। सीधे कंपनी का आदमी आता है और डीलिंग करते हैं। उनके मेडिकल स्टोर भी फिक्स होते हैं। बाकायदा लिखा होता है कि उनकी दवाएं किन मेडिकल स्टोर्स पर मिल सकती है। बस वे अपने नाम का फायदा उठाते हैं और मरीजों को चूना लगाते हैं।

कुछ डॉक्टर ऐसे भी

मगर डॉक्टरी के इस पेशे में कई ऐसे डॉक्टर भी हैं, जो मरीजों के लिए सस्ती से सस्ती दवाएं लिखते हैं। लाखों के कमीशन से उन्हें कोई मतलब नहीं है। एमआर हो या साथी डॉक्टर किसी के दबाव से उन पर असर नहीं पड़ता। भले ही उस कंपनी के लोग उन्हें जानते हों या न जानते हों। सिर्फ कमीशन के नाम पर दवाएं बेचने वाले कंपनियों के दलाल इन डॉक्टर्स के पास जाने से घबराते हैं। या फिर अपने फॉर्मूला की जानकारी देकर भाग आते हैं।

विश्वास बिकाऊ है

केजीएमयू के एक डॉक्टर के अनुसार यहां पब्लिक मेडिसिन्स के प्रति ज्यादा जागरूक नहीं है। मरीज व परिजनों को अपने डॉक्टर पर ही विश्वास होता है। वे आंख मूंदकर डॉक्टर की कही हर बात को मान लेते हैं और जो दवा लिखी जाती है उसे ही खरीदते हैं। भले ही डॉक्टर ने कितनी भी महंगी दवा क्यों न लिखी हो? हालांकि, मार्केट में दवाएं ऐसी ऐसी मौजूद हैं कि एक एंटीबायोटिक टेबलेट किसी एक कंपनी की 20 रुपए की है तो दूसरी ब्रांडेड कंपनी की वही एंटीबायोटिक दवा और सेम कम्पोजिशन के साथ 50 रुपये में बिकती है।

कई गुना अधिक है दाम

ब्रांडेड मेडिसिन्स के रेट्स जेनेरिक दवाओं से 2 से 15 गुना तक अधिक होते हैं। उदाहरण के तौर पर डायक्लोफेनिक एसआर- 100 एमजी (एक पॉपुलर पेनकिलर) का 10 टेबलेट का रेट 51.91 रुपए है जबकि जेनेरिक में इसी दवा के रेट 3.35 रुपए है। वहीं, एक 100 एमएल की कफ सीरप की ब्रांडेड कंपनी की कॉस्ट 33 रुपए है तो वहीं जेनेरिक में इसी फॉर्मूले की सीरप की कॉस्ट सिर्फ 13.30 रुपए है। ऐसी सैकड़ों दवाएं हैं जिनकी कई गुना कीमत मरीजों से ऐठी जाती है। लेकिन डॉक्टर ब्रांडेड दवाएं ही डॉक्टर प्रिस्क्राइब करते हैं। केन्द्र सरकार भी मानती है कि ब्रांडेड दवाओं के रेट प्रमोशनल आफर्स के कारण महंगे होते हैं। केमिकल्स एंड फर्टिलाइजर्स राज्य मंत्री ने दो साल पहले एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें ब्रांडेड और जेनरिक दवाओं में एक बड़ा गैप था। जैसे कि पैरासीटामॉल के 10 टेबलेट की स्ट्रिप 14 रुपए की है तो वहीं जेनरिक में यह स्ट्रिप ढाई से तीन रुपए की है।

ब्रांडेड दवाओं का मतलब

फार्मा कंपनियां नई दवाएं खोजती हैं तो उन्हें पेटेंट कराती है। यह पेटेंट हर जगह लागू होता है और कोई दूसरा उस कंपनी की बिना अनुमति के उस दवा को उसी फॉर्मूले पर नहीं बना सकता। पेटेंट का एक निश्चित समय होता है उसके बाद सरकार अन्य कंपनियों के लिए उस दवा बनाने का अधिकार दे देती है। पेटेंट अवधि समाप्त होने पर एक कंपनी का एकाधिकार समाप्त हो जाता है। अलग-अलग कंपनियां जब एक ही दवा बनाती हैं, तो वही दवा सस्ती हो जाती है।

मरीज के हित में जेनेरिक दवाएं

भारत में जेनेरिक दवाओं की मुहिम को छेड़ने वाले अशोक कुमार भार्गव ने बताया कि भारत में मेडिसिन्स की मार्केट लगभग एक लाख बीस हजार करोड़ रुपए की है। इसमें से ज्यादा एमाउंट जो हम लाइफ सेविंग ड्रग्स के लिए अदा करते हैं, वह डॉक्टरों और अधिकारियों को खुश करने और कम्पनियों की जेब में ही जाता है। लेकिन अगर गवर्नमेंट जेनरिक दवाओं को बढ़ावा दे तो मरीजों की जेब ढीली नहीं होगी। केंद्र सरकार ने इस मामले में पहल भी कर दी है। बावजूद इसके इसे बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है।

दवा की इफीकेसी चेक करने का रूल नहीं

केजीएमयू में फार्माकोलॉजी डिपार्टमेंट के डॉक्टर्स के अनुसार इंडियन गवर्नमेंट के ढुलमुल नियमों के कारण ही मरीजों को सही दवाएं नही मिल पाती हैं। जानकारी के मुताबिक हमारे यहां दवाओं की इफीकेसी चेक करने का कोई रूल नहीं है। इंडियन गवर्नमेंट के नियम से तो दवाएं सही बनती है लेकिन जब दवाएं मार्केट में आती हैं तो घटिया किस्म की दवाओं को भी सप्लाई कर दिया जाता है। न तो नेशनल लेवल पर और न ही स्टेट लेवल पर दवाओं को चेक करने का कोई मशीन है। जेनरिक दवाओं का कांसेप्ट तो अच्छा है लेकिन अधिकारियों की मिली भगत से 10 रुपए वाली जेनरिक दवा पर 50 रुपए एमआरपी डालकर बेचा जाता है। वहीं ब्रांडेड में 28 रुपए वाली दवा का प्रिंट रेट 30 से 35 ही होता है। उन्होंने बताया कि जब तक दवाओं की गुणवत्ता पर कंट्रोल नहीं होगा मरीजों को सस्ती दवाएं मिलनी मुश्किल हैं। फार्मा कंपनियों और डॉक्टर्स मरीजों को ऐसे ही चूना लगाते रहेंगे।

इम्पॉर्टेट फैक्ट्स

- फिलवक्त भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा दवा उत्पादक देश है।

- यह हर साल 42 हजार करोड़ रुपये की जेनरिक दवाएं एक्सपोर्ट करता है।

- यूनिसेफ अपनी जरूरत की 50 फीसदी दवाएं भारत से ही खरीदता है।

- यह भारतीय दवाओं की अच्छी क्वालिटी का सबूत है। लेकिन फायदा विदेशी उठाते हैं।

- भारत में दवाओं का मार्केट एक लाख 30 हजार करोड़ का है।

आईएमए हमेशा ऐसी चीजों का विरोध करता है। यह मेडिकल एथिक्स के खिलाफ है। जब तक डॉक्टर्स के मॉरल में सुधार नहीं आएगा ऐसी घटनाओं को रोका नहीं जा सकता। इसलिए सरकार को पीजीआई, केजीएमयू की तरह दवाओं के काउंटर की ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि प्राइस कंट्रोल में रहे।

डॉ। विश्वजीत सिंह,

सेक्रेटरी, आईएमए लखनऊ

जो कमीशन दे रहा है इसका मतलब उसकी दवाएं सब स्टैंडर्ड है। डॉक्टर्स द्वारा कमीशन लेना ही मेडिकल एथिक्स के खिलाफ है। ऐसा करने वाले कुछ लोग मेडिकल प्रोफेशन को बदनाम कर रहे हैं।

डॉ। अनूप अग्रवाल,

सेक्रेटरी, नर्सिंग होम एसोसिएशन